Friday, June 27, 2008

राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार,,,गयउँ उजेनी सुनु उरगारी




गयउँ उजेनी सुनु उरगारी दीन मलीन दरिद्र दुखारी

गएँ काल कछु संपति पाई तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई

बिप्र एक बैदिक सिव पूजा करइ सदा तेहि काजु दूजा

परम साधु परमारथ बिंदक संभु उपासक नहिं हरि निंदक
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता द्विज दयाल अति नीति निकेता
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई

मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई

एक बार गुर लीन्ह बोलाई मोहि नीति बहु भाँति सिखाई
सिव सेवा कर फल सुत सोई अबिरल भगति राम पद होई
रामहि भजहिं तात सिव धाता नर पावँर कै केतिक बाता
जासु चरन अज सिव अनुरागी तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती
अति दयाल गुर स्वल्प क्रोधा पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा
जेहि ते नीच बड़ाई पावा सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा
धूम अनल संभव सुनु भाई तेहि बुझाव घन पदवी पाई
रज मग परी निरादर रहई सब कर पद प्रहार नित सहई
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा
कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह भल नहिं प्रीती
उदासीन नित रहिअ गोसाईं खल परिहरिअ स्वान की नाईं
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई गुर हित कहइ मोहि सोहाई

एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस


मंदिर माझ भई नभ बानी रे हतभाग्य अग्य अभिमानी
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा अति कृपाल चित सम्यक बोधा
तदपि साप सठ दैहउँ तोही नीति बिरोध सोहाइ मोही
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं रौरव नरक कोटि जुग परहीं
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा
बैठ रहेसि अजगर इव पापी सर्प होहि खल मल मति ब्यापी
महा बिटप कोटर महुँ जाई रहु अधमाधम अधगति पाई
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि


सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु


पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु

 


जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु

तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान
तेहि पर क्रोध करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान



संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल


एहि कर होइ परम कल्याना सोइ करहु अब कृपानिधाना
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी एवमस्तु इति भइ नभबानी
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा
तदपि तुम्हार साधुता देखी करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी
छमासील जे पर उपकारी ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी


मोर श्राप द्विज ब्यर्थ जाइहि जन्म सहस अवस्य यह पाइहि
जनमत मरत दुसह दुख होई अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना


रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें राम भगति उपजिहि उर तोरें
सुनु मम बचन सत्य अब भाई हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई
अब जनि करहि बिप्र अपमाना जानेहु संत अनंत समाना
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला कालदंड हरि चक्र कराला
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई बिप्रद्रोह पावक सो जरई
अस बिबेक राखेहु मन माहीं तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं
औरउ एक आसिषा मोरी अप्रतिहत गति होइहि तोरी







राम
अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार
सुनि आचरजु मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार