Wednesday, September 10, 2008

अकथ कहानी

Hare Rama
सुनहु तात यह अकथ कहानी  समुझत बनइ जाइ बखानी
ईस्वर अंस जीव अबिनासी  चेतन अमल सहज सुख रासी
सो मायाबस भयउ गोसाईं  बँध्यो कीर मरकट की नाई
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई  जदपि मृषा छूटत कठिनई
तब ते जीव भयउ संसारी  छूट ग्रंथि होइ सुखारी
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई  छूट अधिक अधिक अरुझाई
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी  ग्रंथि छूट किमि परइ देखी
अस संजोग ईस जब करई  तबहुँ कदाचित सो निरुअरई
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई  जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई
जप तप ब्रत जम नियम अपारा जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा
तेइ तृन हरित चरै जब गाई भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा निर्मल मन अहीर निज दासा
परम धर्ममय पय दुहि भाई अवटै अनल अकाम बिहाई
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै धृति सम जावनु देइ जमावै
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी दम अधार रजु सत्य सुबानी
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता बिमल बिराग सुभग सुपुनीता
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब

सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा 
दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा तब भव मूल भेद भ्रम नासा
प्रबल अबिद्या कर परिवारा मोह आदि तम मिटइ अपारा
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई तब यह जीव कृतारथ होई
छोरत ग्रंथि जानि खगरायाबिघ्न अनेक करइ तब माया
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई
कल बल छल करि जाहिं समीपा अंचल बात बुझावहिं दीपा
होइ बुद्धि जौं परम सयानी तिन्ह तन चितव अनहित जानी
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना  तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना
आवत देखहिं बिषय बयारी ते हठि देही कपाट उघारी
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई तबहिं दीप बिग्यान बुझाई
ग्रंथि छूटि मिटा सो प्रकासा बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा 
इंद्रिन्ह सुरन्ह ग्यान सोहाई बिषय भोग पर प्रीति सदाई
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी तेहि बिधि दीप को बार बहोरी

तब फिरि जीव बिबिधबिधि पावइ संसृति क्लेस
हरि माया अति दुस्तर तरि जाइ बिहगेस
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक

ग्यान पंथ कृपान कै धारा 
परत खगेस होइ नहिं बारा
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई  सो कैवल्य परम पद लहई
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद
संत पुरान निगम आगम बद
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई
अनइच्छित आवइ बरिआई
जिमि थल बिनु जल रहि सकाई
कोटि भाँति कोउ करै उपाई तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई 
रहि सकइ हरि भगति बिहाई 
अस बिचारि हरि भगत सयाने  मुक्ति निरादर भगति लुभाने
भगति करत बिनु जतन प्रयासा  संसृति मूल अबिद्या नासा 
भोजन करिअ तृपिति हित लागी जिमि सो असन पचवै जठरागी 
असि हरिभगति सुगम सुखदाई  को अस मूढ़ जाहि सोहाई

सेवक सेब्य भाव बिनु भव तरिअ उरगारि
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य
Hare Rama