Wednesday, January 9, 2008

एकु मनोरथु बड़ मन माहीं सभयँ सकोच जात कहि नाहीं

तात भरत तुम्ह धरम धुरीना लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना

 करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात

गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात

तुम्हहि बिदित सबही कर करमू आपन मोर परम हित धरमू
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा तदपि कहउँ अवसर अनुसारा
तात तात बिनु बात हमारी केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी
नतरु प्रजा परिजन परिवारू हमहि सहित सबु होत खुआरू
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू जग केहि कहहु होइ कलेसू
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा
राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम

सहित समाज तुम्हार हमारा घर बन गुर प्रसाद रखवारा
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू सकल धरम धरनीधर सेसू
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू तात तरनिकुल पालक होहू
साधक एक सकल सिधि देनी कीरति सुगति भूतिमय बेनी
सो बिचारि सहि संकटु भारी करहु प्रजा परिवारु सुखारी
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा कुसमयँ तात अनुचित मोरा
होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए
सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ

भरतहि भयउ परम संतोषू सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी।बोले पानि पंकरुह जोरी
नाथ भयउ सुखु साथ गए को लहेउँ लाहु जग जनमु भए को
अब कृपाल जस आयसु होई करौं सीस धरि सादर सोई
सो अवलंब देव मोहि देई।अवधि पारु पावौं जेहि सेई
देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ

एकु मनोरथु बड़ मन माहीं सभयँ सकोच जात कहि नाहीं
कहहु तात प्रभु आयसु पाई बोले बानि सनेह सुहाई
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बनखग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी आयसु होइ आवौं देखी
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू तात बिगतभय कानन चरहू
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता पावन परम सुहावन भ्राता
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा

सुनि सुनि राम भरत संबादू दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू
राम मातु दुखु सुखु सम जानी कहि गुन राम प्रबोधीं रानी
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई एक सराहत भरत भलाई
अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप

भरत अत्रि अनुसासन पाई जल भाजन सब दिए चलाई
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू सहित गए जहँ कूप अगाधू
पावन पाथ पुन्यथल राखा प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा
तात अनादि सिद्ध थल एहू लोपेउ काल बिदित नहिं केहू
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू सुगम अगम अति धरम बिचारू
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा अति पावन तीरथ जल जोगा
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी होइहहिं बिमल करम मन बानी
कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ।

कहत धरम इतिहास सप्रीती भयउ भोरु निसि सो सुख बीती
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई राम अत्रि गुर आयसु पाई
सहित समाज साज सब सादें चले राम बन अटन पयादें
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं
कुस कंटक काँकरीं कुराईं कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं।बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी सेवहिं सकल राम प्रिय जानी
सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह होइ बड़ि बात

एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी बूझत भरतु दिब्य सब देखी
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ
देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ


करि दंडवत कहत कर जोरी राखीं नाथ सकल रुचि मोरी
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू बहुत भाँति दुखु पावा आपू
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई सेवौं अवध अवधि भरि जाई
जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल