Wednesday, April 2, 2008

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ


बैठे परम प्रसन्न कृपाला कहत अनुज सन कथा रसाला
बिरहवंत भगवंतहि देखी नारद मन भा सोच बिसेषी
मोर साप करि अंगीकारा सहत राम नाना दुख भारा
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई पुनि बनिहि अस अवसरु आई
यह बिचारि नारद कर बीना गए जहाँ प्रभु सुख आसीना
गावत राम चरित मृदु बानी प्रेम सहित बहु भाँति बखानी
करत दंडवत लिए उठाई राखे बहुत बार उर लाई।।
स्वागत पूँछि निकट बैठारे लछिमन सादर चरन पखारे
नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि

सुनहु उदार सहज रघुनायक सुंदर अगम सुगम बर दायक
देहु एक बर मागउँ स्वामी जद्यपि जानत अंतरजामी
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ।जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी जो मुनिबर सकहु तुम्ह मागी
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें अस बिस्वास तजहु जनि भोरें
तब नारद बोले हरषाई  अस बर मागउँ करउँ ढिठाई


जद्यपि प्रभु के नाम अनेका श्रुति कह अधिक एक तें एका

राम सकल नामन्ह ते अधिका होउ नाथ अघ खग गन बधिका

राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम
अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम
एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ