Thursday, January 24, 2008

अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ

अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ सुनत महामुनि हरषित भयऊ
पुलकित गात अत्रि उठि धाए देखि रामु आतुर चलि आए
करत दंडवत मुनि उर लाए प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए
देखि राम छबि नयन जुड़ाने सादर निज आश्रम तब आने
करि पूजा कहि बचन सुहाए दिए मूल फल प्रभु मन भाए

अनुसुइया के पद गहि सीता मिली बहोरि सुसील बिनीता
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई आसिष देइ निकट बैठाई
दिब्य बसन भूषन पहिराए जे नित नूतन अमल सुहाए
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी नारिधर्म कछु ब्याज बखानी
मातु पिता भ्राता हितकारी मितप्रद सब सुनु राजकुमारी
अमित दानि भर्ता बयदेही अधम सो नारि जो सेव तेही
धीरज धर्म मित्र अरु नारी आपद काल परिखिअहिं चारी

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ


जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय


सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि


तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित

सुनि जानकीं परम सुखु पावा सादर तासु चरन सिरु नावा


कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल
सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल
कठिन काल मल कोस धर्म ग्यान जोग जप
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर


मिला असुर बिराध मग जाता आवतहीं रघुवीर निपाता


पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा
देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला संकर मानस राजमराला
जात रहेउँ बिरंचि के धामा सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा
चितवत पंथ रहेउँ दिन राती अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती
नाथ सकल साधन मैं हीना कीन्ही कृपा जानि जन दीना
सो कछु देव मोहि निहोरा निज पन राखेउ जन मन चोरा
तब लगि रहहु दीन हित लागी जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा
ताते मुनि हरि लीन भयऊ प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ
रिषि निकाय मुनिबर गति देखि सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी