रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस
सायक एक नाभि सर सोषा अपर लगे भुज सिर करि रोषा
लै सिर बाहु चले नाराचा सिर भुज हीन रुंड महि नाचा
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा
गर्जेउ मरत घोर रव भारी कहाँ रामु रन हतौं पचारी
डोली भूमि गिरत दसकंधर छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई चापि भालु मर्कट समुदाई
मंदोदरि आगें भुज सीसा धरि सर चले जहाँ जगदीसा
पति सिर देखत मंदोदरी मुरुछित बिकल धरनि खसि परी
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं तेहि उठाइ रावन पहिं आई
पति गति देखि ते करहिं पुकारा
छूटे कच नहिं बपुष सँभारा
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना
रोवत करहिं प्रताप बखाना
तव बल नाथ डोल नित धरनी
तेज हीन पावक ससि तरनी
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा
सो तनु भूमि परेउ भरि छारा
बरुन कुबेर सुरेस समीरा
रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा
भुजबल जितेहु काल जम साईं
आजु परेहु अनाथ की नाईं
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई
सुत परिजन बल बरनि न जाई
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा
रहा न कोउ कुल रोवनिहारा
काल बिबस पति कहा न माना
अग जग नाथु मनुज करि जाना
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं
अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान