जय सिया राम
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा सती नाम तब रहा तुम्हारा
दच्छ जग्य तब भा अपमाना तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा
तब अति सोच भयउ मन मोरें दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा कौतुक देखत फिरउँ बेरागा
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी नील सैल एक सुन्दर भूरी
तासु कनकमय सिखर सुहाए चारि चारु मोरे मन भाए
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला बट पीपर पाकरी रसाला
सैलोपरि सर सुंदर सोहा मनि सोपान देखि मन मोहा
सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई
तासु नास कल्पांत न होई
माया कृत गुन दोष अनेका
मोह मनोज आदि अबिबेका
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं
तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं
तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा
सो सुनु उमा सहित अनुरागा
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई
जाप जग्य पाकरि तर करई
आँब छाहँ कर मानस पूजा
तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा
आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना
प्रेम सहित कर सादर गाना
सुनहिं सकल मति बिमल मराला
बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा
उर उपजा आनंद बिसेषा
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास
जय सिया राम