Monday, April 21, 2008

स्वयंप्रभा

कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा प्रान लेहिं एक एक चपेटा

बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं

लागि तृषा अतिसय अकुलाने मिलइ जल घन गहन भुलाने

मन हनुमान कीन्ह अनुमाना मरन चहत सब बिनु जल पाना

चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा


चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं 
बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं
गिरि ते उतरि पवनसुत आवा 
सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा 
पैठे बिबर बिलंबु कीन्हा

दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज{
स्वयंप्रभा }

दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा 
पूछें निज बृत्तांत सुनावा
तेहिं तब कहा करहु जल पाना 
खाहु सुरस सुंदर फल नाना
मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए 
तासु निकट पुनि सब चलि आए
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई 
मैं अब जाब जहाँ रघुराई

मूदहु नयन बिबर तजि जाहू 
पैहहु सीतहि जनि पछिताहू


नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा 
ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा

सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा जाइ कमल पद नाएसि माथा
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही


बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस