Wednesday, April 23, 2008

गिरि कंदराँ सुनी संपाती

इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं बी अवधि काज कछु नाहीं
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता
कह अंगद लोचन भरि बारी दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी
इहाँ सुधि सीता कै पाई उहाँ गएँ मारिहि कपिराई
पिता बधे पर मारत मोही राखा राम निहोर ओही
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं मरन भयउ कछु संसय नाहीं
अंगद बचन सुनत कपि बीरा बोलि सकहिं नयन बह नीरा
छन एक सोच मगन होइ रहे पुनि अस वचन कहत सब भए
हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना
अस कहि लवन सिंधु तट जाई बैठे कपि सब दर्भ डसाई

जामवंत अंगद दुख देखी 
कहिं कथा उपदेस बिसेषी

तात राम कहुँ नर जनि मानहु निर्गुन ब्रम्ह अजित अज जानहु
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि


एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कंदराँ सुनी संपाती
बाहेर होइ देखि बहु कीसा मोहि अहार दीन्ह जगदीसा

आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ दिन बहु चले अहार बिनु मरऊँ

कबहुँ मिल भरि उदर अहारा आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा

डरपे गीध बचन सुनि काना अब भा मरन सत्य हम जाना
कपि सब उठे गीध कहँ देखी जामवंत मन सोच बिसेषी
कह अंगद बिचारि मन माहीं धन्य जटायू सम कोउ नाहीं
राम काज कारन तनु त्यागी  हरि पुर गयउ परम बड़ भागी
सुनि खग हरष सोक जुत बानी  आवा निकट कपिन्ह भय मानी
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई
सुनि संपाति बंधु कै करनी रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी

मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि
बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि

अनुज क्रिया करि सागर तीरा कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा


हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई  गगन गए रबि निकट उडाई
तेज सहि सक सो फिरि आवा  मै अभिमानी रबि निअरावा
जरे पंख अति तेज अपारा  परेउँ भूमि करि घोर चिकारा

मुनि एक नाम चंद्रमा ओही 
लागी दया देखी करि मोही
बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा  
देहि जनित अभिमानी छड़ावा

त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही तासु नारि निसिचर पति हरिही
तासु खोज पठइहि प्रभू दूता तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता

जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता  तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता

मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू  सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू


गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका  तहँ रह रावन सहज असंका

तहँ असोक उपबन जहँ रहई  सीता बैठि सोच रत अहई

मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार

बूढ भयउँ करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार

जो नाघइ सत जोजन सागर  करइ सो राम काज मति आगर
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा  राम कृपाँ कस भयउ सरीरा

पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं 
अति अपार भवसागर तरहीं
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई 
राम हृदयँ धरि करहु उपाई

अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ
निज निज बल सब काहूँ भाषा पार जाइ कर संसय राखा

जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा

जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी
बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि जाई
उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा जियँ संसय कछु फिरती बारा

जामवंत कह तुम्ह सब लायक पठइअ किमि सब ही कर नायक

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना का चुप साधि रहेहु बलवाना

पवन तनय बल पवन समाना 
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना
कवन सो काज कठिन जग माहीं 
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं
राम काज लगि तब अवतारा 
सुनतहिं भयउ पर्वताकारा

कनक बरन तन तेज बिराजा मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा
सिंहनाद करि बारहिं बारा लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा

सहित सहाय रावनहि मारी आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी

जामवंत मैं पूँछउँ तोही 
उचित सिखावनु दीजहु मोही

एतना करहु तात तुम्ह जाई सीतहि देखि कहहु सुधि आई
तब निज भुज बल राजिव नैना कौतुक लागि संग कपि सेना
कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं