शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम्
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि
हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान
कनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं
नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
तूल न ताहि सकल मिल जो सुख लेवे सत्संग
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन
आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु
सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज
सुन सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल
तव प्रभावँ वड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे
मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार
रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि
जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि
उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम
जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड
जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति
काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच
सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ
जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान