Thursday, May 31, 2007

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर

तब मुनि सादर कहा बुझाई चरित एक प्रभु देखिअ जाई
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा हरषि चले मुनिबर के साथा
आश्रम एक दीख मग माहीं खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी सकल कथा मुनि कहा बिसेषी
गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर

परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई
अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई
मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ मागउँ बर आना
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल