Monday, December 24, 2007

देव एक बिनती सुनि मोरी उचित होइ तस करब बहोरी


तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें करौं काह असमंजस जीकें
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी तनु परिहरेउ पेम पन लागी
तासु बचन मेटत मन सोचू तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा
मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु

सुर गन सहित सभय सुरराजू सोचहिं चाहत होन अकाजू
बनत उपाउ करत कछु नाहीं राम सरन सब गे मन माहीं
बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं रघुपति भगत भगति बस अहहीं
सुधि करि अंबरीष दुरबासा भे सुर सुरपति निपट निरासा
सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा नरहरि किए प्रगट प्रहलादा


सेवक हित साहिब सेवकाई करै सकल सुख लोभ बिहाई
स्वारथु नाथ फिरें सबही का किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका
यह स्वारथ परमारथ सारु सकल सुकृत फल सुगति सिंगारु
देव एक बिनती सुनि मोरी उचित होइ तस करब बहोरी
तिलक समाजु साजि सबु आना करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना
सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ

नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई बहुरिअ सीय सहित रघुराई
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई करुना सागर कीजिअ सोई